| शेखर सुमन | Shekhar Suman |
Date 20 Nov 2020
| गगरी फूटी | माला टूटी |
भला हुआ मेरी गगरी फूटी । मैं पनिया भरन से छूटी रे ।
मोरे सर से टली बला …….
भला हुआ मेरी माला टूटी । मैं राम जपन से छूटी रे ।
मोरे सर से टली बला …….
सारांश : अर्थ यह है कि ईश्वर की असीम कृपा है जो मेरी साधना अब चरम स्तिथि में आ चुकी है , मेरा “स्व” का घट अब टूट चुका है , अब वह “सर्व स्व ” में विलीन हो गया है , और अब हर जगह राम ही राम , सब जीव में शिव जब दीखते हैं , तो फिर अब जप माला भी मेरे लिए एक तरह से टूट ही गया
विस्तार से समझते हैं
इसको इस अर्थ में भी ले सकते हैं । गगरी का मतलब है घड़ा ; पनिया – पानी ; टली बला – मुसीबत दूर हुई , झंझट टली , मुक्ति मिली ।
श्री रामकृष्ण ऐसी बातों पर शायद यह कहते :
जैसे पानी का एक झील है । वहाँ कुछ पनिहारिन घड़े लेकर पानी लेने आई हैं । हर कोई अपने अपने घट में पानी भर लेती हैं । मेरा पानी , तेरा वाला पानी , मेरा घट , तेरा घट होने लगता है । पर उन सब घट में एक ही पानी है । भेद है क्या ? या मान लें उन सब का घट आपस में टकड़ा कर उसी झील में टूट जाता , सारा पानी घट से बाहर निकल कर झील के पानी में वापस मिल जाता तो ? तो भी कहाँ तेरा पानी , कहाँ मेरा पानी । कहाँ मेरा घट , कहाँ तेरा घट ।
सब एक हो गए । घट के नाम से, घट के रूप के कारण जो अलग अलग सा लग रहा था , वास्तव में नाम – रूप के करण, असल में आभास मात्रा था । अलग था , पर एक ही तो है । सो आप , मैं , यह जगत , इस जगत में जो भी प्राणी हैं , सब अलग अलग एक घट हैं , नाम और रूप हैं, भिन्न भिन्न दीखते हैं । पर वह कौन है जो यह कह रहा है ” में हूँ ” , ” वह कौन है जो यह कह रहा है ” आप हैं ” , ‘ वह है ” .. इन सबमें “वो” ही है – ” सो अहम् ” , या ‘ तत्त् त्वम् असि ”
जब घट टूट जाती है , तो आपस में सब भेद जो दीख रहा था वह समाप्त हो जाता है । यही आत्मा का परमात्मा में मिलन है । यही फिर अद्वैत वेदांत के अनुसार माया का पटाक्षेप भी है । माया का पर्दा हट गया ।
कबीर ने कहा – जब मैं था तब हरि नहीं, अब हरि हैं मैं नाहि ।
दस्यु रत्नाकर ने कहा – मरा , मरा , मरा …… और जब ” मैं ” मर गया तो वही फिर …… राम , राम , राम हो गया और वह दस्यु रत्नाकर , फिर महर्षि वाल्मीकि हो गए
माँ काली का भक्त – श्री रामकृष्ण ने अद्वैतवादी – तोतापुरी को कहा – मैं काली को ओझल कर नहीं पा रहा , और फिर तोतापुरी ने एक शीशे के बोतल को तोड़ डाला , उस शीशे के टुकड़े को उनके भ्रू मध्य पर चुभो दिया और फिर श्री रामकृष्ण ने देखा एक तलवार और माँ काली की छाया जो मन मस्तिष्क पर छाई थी , उसको उस तलवार से काट कर रास्ते से हटा दिया । और उस निर्विकल्प समाधि में लीन हो गए । गुरु अवाक रह गए । जिस अवस्था को पाने के लिए तोतापुरी ने सम्पूर्ण जीवन लगा दिया , वह इस श्री रामकृष्ण ने तीन दिन में प्राप्त कर लिए – अद्भुत ।
From Duality to Bhav Samadhi
स्वामी विवेकानंद – Each soul is potentially divine, the Goal is to Manifest that Divinity .
Realise that We Are A Soul that has Taken Up a BODY
Not that We are a BODY which takes up or Gives Up Soul
तो हम यह कह सकते हैं
भला हुआ मेरी गगरी फूटी । मैं पनिया भरन से छूटी रे ।
मोरे सर से टली बला …….
यानि : अब इस मैं , मेरा , स्वार्थ , छोटे रूप से मुक्ति मिली , मैं निराकार हुई । मैंने जीवन के लक्ष्य को प्राप्त किया , जो है ईश्वर लाभ , To Realize the God तो इस तरह भला हुआ जो बला टली ।
————-
श्री रामकृष्ण कहते हैं – संध्या गायत्री का नियम पालन , जप तप तभी तक है जब तक भागवान लाभ नहीं हुआ । एक बार वह हो जाए तो यह सब छूट जाता है ।
जब गर्भिणी बहु आखिरी माह तक आने लगती है तो सास उसके सारे काम कम कर देती है , और जब प्रसव के बाद शिशु आ जाता है , तो सास उसको पूरा भार मुक्त कर देती है ।
जब पौधा छोटा होता है , उसको चारो तरफ से बाड़ा लगा कर , घेर कर रखते है । कहीं बकरी , मवेशी न चर जाएँ । पर जब वह बड़ा हो जाता है , फिर और खतरा नहीं , हाथी का भी सामना कर पाएगा । सारे घेरे, सारे बंधन तब खत्म कर दिए जाते हैं ।
उसी तरह जब हम साधना के प्रारम्भिक दौड़ में होते है, तब जप माला की जरुरत होती है । एक तरह से नाम स्मरण करने में सहायक होती है । पर जब नाम स्मरण निरंतर हो जाए , तो फिर उस जप माला की क्या आवश्यकता ।
वह अब टूट गई तो अच्छा ही है । बंधन की अब जरूरत नहीं , मुक्ति मिल गई ।
गीता में है – यदा ते मोहकलिलं बुद्धिर्व्यतितरिष्यति।तदा गन्तासि निर्वेदं श्रोतव्यस्य श्रुतस्य च।।2.52।।
जब तुम्हारी बुद्धि मोहरूप दलदल (कलिल) को तर जायेगी तब तुम उन सब वस्तुओं से निर्वेद (वैराग्य) को प्राप्त हो जाओगे? जो सुनने योग्य और सुनी हुई हैं।।
वेद श्रुति ग्रंथों की आवश्यकता नहीं रह जाएगी – आत्मानुभूति आपको उसके भी पर ले जाएगी – क्योंकि ” वह ‘ ऐसा ही जिसे हम अपने शब्द के द्वारा वर्णन नहीं कर सकते । अनिर्वचनीय , अकथनीय , अननत , सनातन – पर यह अनुभूति के द्वारा प्राप्त हो सकता है ।
ऋग्वेद से लेकर यजुर्वेद महामृत्युंजय मंत्र – उर्वारुकमिव बन्धनान् मृत्योर्मुक्षीय मामृतात।
उर्वारुक – the fruit of Cucumis Usitatissimus ( जैसे कि लता दार – तरबूज, खीरा, कोहरा, लौकी, भुआ )
जब यह सब्जी , यह फल वार्धक्य प्राप्त कर लेता है, पक जाता है , तो लता से उसको खींचना नहीं पड़ता , खुद ही आसानी से अलग हो जाता है । उसी तरह हम भी जब परिपक्व हो जाते हैं तो हमारा मोह मंधन आसानी से छूट जाता है , टूट जाता है , जोड़ नहीं लगाना पड़ता नहीं पड़ता ।
उर्वारुकमिव बन्धनात् का अर्थ उसी तरह से बंधन से हम मुक्त हो जाते है । मृत्यु के पार , मोक्ष को प्राप्त कर लेते हैं ।
श्री रामकृष्ण यह भी कहते हैं – एक व्यक्ति ने एक पत्र लिखा , कहा उस फलाँ व्यक्ति को दे आओ । पत्र खो जाता है । बहुत खोजते हैं , फिर संभाल कर रखते हैं । बड़े जतन से उसको पहुंचाते हैं । पत्र उस गंतव्य व्यक्ति को दिया जाता है । वह पढता है । बाज़ार से क्या सामान लाना है उसका लिस्ट है । काम हो गया । वह उस पत्र को फाड़ कर अब फेंक देता है । कितना संभाला उसको , उसको संभालने में कितना झंझट हुआ ,पर जब उस कागज के टुकड़े का उद्देश्य हासिल हो गया तो , अब रखने की जरूरत नहीं । अब व्यर्थ है ।
तो
भला हुआ मेरी माला टूटी । मैं राम जपन से छूटी रे ।मोरे सर से टली बला …….
इसका हम यह अर्थ समझ सकते हैं :
एक साधक या साधिका अब परिपक्व को प्राप्त कर लेता है , तो ईश्वर उसके लिए वो सारे नियम कानून, बंधन, रीति रिवाज , जप माला की आवश्यकता ख़त्म कर देते हैं । और हम मुक्त हो जाते हैं । अब और जप माला व्यर्थ है, चलो बला टली ।