Goal of Life
जीवन का उद्देश्य ईश्वर लाभ है। The Goal of Life is Realization of God.
स्वामी विवेकानन्द ने रामकृष्ण मठ और मिशन का आदर्श-वाक्य रखा है – “आत्मनो मोक्षार्थं जगद् हिताय च “
जीवन के दो लक्ष्य हैं – अभ्युदय और निःश्रेयस। अभ्युदय प्राप्त करने का मार्ग है प्रवृत्ति। निःश्रेयस प्राप्त करने का मार्ग है निवृत्ति ।
मनुष्य का एक अंतर इन्द्रिय है – अंतरिंद्रिय – केवल मन (एक)
मनुष्य के दो लक्ष्य हैं – अभ्युदय और निःश्रेयस
मनुष्य की दो प्रवृतियाँ है – प्रवृत्ति , निवृत्ति
मनुष्य के तीन गुण हैं – सत्व, तमस्, रजस्
मनुष्य के तीन दोष हैं – कफ, पित्त, वात
मनुष्य के चार पुरुषार्थ हैं – धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष
मनुष्य के चार वर्ण हैं – ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र
मनुष्य के चार वर्ण हैं – ब्रमचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ, संन्यास
मनुष्य के चार अंतःकरण हैं – मन बुद्धि चित्त और अहंकार
मनुष्य के पंचकोश हैं – अन्नमय , प्राणमय , मनोमय , विज्ञानमय,आनंदमय
मनुष्य के पञ्च ज्ञान इन्द्रियाँ – आंख, कान, नाक, जीभ और त्वचा
पञ्च कर्म इन्द्रियाँ हैं – हाथ, पैर, मुंह, गुदा और लिंग
मनुष्य के सात चक्र हैं – मूलाधार,स्वाधिष्ठान, मणिपुर,अनाहत ,विशुद्ध, आज्ञा,सहस्रार
मनुष्य की नौ द्वार हैं – दो आँख, दो कान, दो नाक, दो गुप्तेंद्रियाँ, मुख
मनुष्य की बारह राशियाँ हैं – मेष, वृषभ, मिथुन, कर्क, सिंह, कन्या, तुला, वृश्चिक, धनु, मकर, कुंभ और मीन
जीवन के दो लक्ष्य हैं अभ्युदय और निःश्रेयस
अभ्युदय Material Welfare
ऊपर की ओर उठना या चढ़ना।, कोई कार्य, बात आदि शुरू होने या करने की ; पहले की अवस्था से अच्छी या ऊँची अवस्था की ओर बढ़ने या बढ़ाने की क्रिया ; किसी नई चीज़, बात, शक्ति, आदि के उत्पन्न होकर सामने आने की क्रिया
निःश्रेयस – Spiritual Welfare
मोक्ष; मुक्ति; कल्याण; मंगल; विज्ञान; भक्ति. और भी कम
यत्र काले त्वनावृत्तिमावृत्तिं चैव योगिनः।
प्रयाता यान्ति तं कालं वक्ष्यामि भरतर्षभ।।8.23।।
अग्निर्ज्योतिरहः शुक्लः षण्मासा उत्तरायणम्।
तत्र प्रयाता गच्छन्ति ब्रह्म ब्रह्मविदो जनाः।।8.24।।
।।8.23।। अभ्युदय और निःश्रेयस ये वे दो लक्ष्य हैं जिन्हें प्राप्त करने के लिए मनुष्य अपने जीवन में प्रयत्न करते हैं। अभ्युदय का अर्थ है लौकिक सम्पदा और भौतिक उन्नति के माध्यम से अधिकाधिक विषयों के उपभोग के द्वारा सुख प्राप्त करना। यह वास्तव में सुख का आभास मात्र है क्योंकि प्रत्येक उपभोग के गर्भ में दुःख छिपा रहता है। निःश्रेयस का अर्थ है अनात्मबंध से मोक्ष। इसमें मनुष्य आत्मस्वरूप का ज्ञान प्राप्त करता है जो सम्पूर्ण जगत् का अधिष्ठान है। इस स्वरूपानुभूति में संसारी जीव की समाप्ति और परमानन्द की प्राप्ति होती है।ये दोनों लक्ष्य परस्पर विपरीत धर्मों वाले हैं। भोग अनित्य है और मोक्ष नित्य एक में संसार का पुनरावर्तन है तो अन्य में अपुनरावृत्ति। अभ्युदय में जीवभाव बना रहता है जबकि ज्ञान में आत्मभाव दृढ़ बनता है। आत्मानुभवी पुरुष अपने आनन्दस्वरूप का अखण्ड अनुभव करता है।यदि लक्ष्य परस्पर भिन्नभिन्न हैं तो उन दोनों की प्राप्ति के मार्ग भी भिन्नभिन्न होने चाहिए। भगवान् श्रीकृष्ण यहाँ भरतश्रेष्ठ अर्जुन को वचन देते हैं कि वे उन दो आवृत्ति और अनावृत्ति मार्गों का वर्णन करेंगे।यहाँ काल शब्द का द्वयर्थक प्रयोग किया गया है। काल का अर्थ है प्रयाण काल और उसी प्रकार प्रस्तुत सन्दर्भ में उसका दूसरा अर्थ है मार्ग जिससे साधकगण देहत्याग के उपरान्त अपने लक्ष्य तक पहुँचते हैं।प्रथम अपुनरावृत्ति का मार्ग बताते हैं —
8.23 – 8.24 Here, the term ‘time’ denotes a path, having many deities beginning with day and ending with year. The deities preside over divisions of time. The meaning is – I declare to you the path departing in which Yogins do not return and also the path departing in which the doers of good actions return. By the clause, ‘Light in the form of fire, the day, bright fortnight, six months of the northern course,’ year also is denoted.
Further NOTES
चक्र – मूलाधार( मूल),स्वाधिष्ठान (त्रिक), मणिपुर चक्र (सौर जालक चक्र),अनाहत चक्र (हृदय चक्र),विशुद्ध चक्र (गले का चक्र), आज्ञा चक्र चक्र (तृतीय-नेत्र ),सहस्रार(मुकुट केन्द्र क्राउन)
इंद्रियां – संतमत दर्शन के अनुसार इंद्रियां 14 है। पांच ज्ञानेंद्रियां- आंख, कान, नाक, जीभ और त्वचा; पांच कर्मेंद्रियां- हाथ, पैर, मुंह, गुदा और लिंग और चार अंतःकरण- मन बुद्धि चित्त और अहंकार। (2) अंतरिंद्रिय – केवल मन (एक)। इनमें बाह्य इंद्रियाँ क्रमश: गंध, रस, रूप स्पर्श तथा शब्द की उपलब्धि मन के द्वारा होती हैं।