#Geeta12

Chapter 12 is namea as Bhakti Yoga

अवतरणिका – अवतरणिका का हिंदी अर्थ. ग्रंथ की प्रस्तावना; भूमिका। परिपाटी; रीति।

अवग्रह अवग्रह (ऽ) कोई ध्वनि या स्वर नहीं है, यह एक चिह्न है। अवग्रह (ऽ) एक देवनागरी चिह्न है जिसका प्रयोग संधि-विशेष के कारण विलुप्त हुए ‘अ’ को प्रदर्शित करने के लिए किया जाता है। जैसे प्रसिद्ध महावाक्य ‘सोऽहम्’ में।

अनुनासिका – अनुनासिक अक्षर पाँच वर्गों के पाँचवें अक्षर हैं ( अर्थात् ङ्, ञ्, ण्, न्, म् ( ๅ , ñ , ण , न , म ) https://www.wisdomlib.org/definition/anunasika

पुष्पिका – अध्याय के अंत में वह वाक्य जिसमें कहे हुए प्रसंग की समाप्ति सूचित की जाती है । यह वाक्य ‘इति श्री ‘ करके प्रायः आरंभ होता है जैसे, ‘इति श्री स्कंदपुराणे रेवाखंडे’ .

एवं सततयुक्ताः ये भक्ताः त्वां पर्युपासते ये चान्येऽपि अक्षरं अव्यक्तम् तेषाम् श्रीभगवान् उवाच

।।12.1।।जो भक्त इस प्रकार निरन्तर आपमें लगे रहकर आप-(सगुण भगवान्-) की उपासना करते हैं और जो अविनाशी निराकारकी ही उपासना करते हैं, उनमेंसे उत्तम योगवेत्ता कौन हैं?

।।12.1।। अर्जुन ने कहा — जो भक्त, सतत युक्त होकर इस (पूर्वोक्त) प्रकार से आपकी उपासना करते हैं और जो भक्त अक्षर, और अव्यक्त की उपासना करते हैं, उन दोनों में कौन उत्तम योगवित् है।।

12.1 Arjuna said Those devotees who, being thus ever dedicated, meditate on You, and those again (who meditate) on the Immutable, the Unmanifested-of them, who are the best experiencers of yoga [(Here) yoga means samadhi, spiritual absorption.] ?

मयि आवेश्य मनः ये मां सर्वज्ञं नित्ययुक्ताः उपासते श्रद्धया परया उपेताः ते मे मताः युक्ततमाः

।।12.2।।मेरेमें मनको लगाकर नित्य-निरन्तर मेरेमें लगे हुए जो भक्त परम श्रद्धासे युक्त होकर मेरी उपासना करते हैं, वे मेरे मतमें सर्वश्रेष्ठ योगी हैं।

।।12.2।। श्रीभगवान् ने कहा — मुझमें मन को एकाग्र करके नित्ययुक्त हुए जो भक्तजन परम श्रद्धा से युक्त होकर मेरी उपासना करते हैं, वे, मेरे मत से, युक्ततम हैं अर्थात् श्रेष्ठ हैं।।

12.2 The Blessed Lord said Those who meditate on Me by fixing their minds on Me with steadfast devotion (and) being endowed with supreme faith-they are considered to be the most perfect yogis according to Me.

ये तु अक्षरम् अनिर्देश्यम् अव्यक्तं पर्युपासते सर्वत्रगं अचिन्त्यं च कूटस्थं अचलम् ध्रुवम्

।।12.3।।जो अपनी इन्द्रियोंको वशमें करके अचिन्त्य, सब जगह परिपूर्ण, अनिर्देश्य, कूटस्थ, अचल, ध्रुव, अक्षर और अव्यक्तकी उपासना करते हैं, वे प्राणिमात्रके हितमें रत और सब जगह समबुद्धिवाले मनुष्य मुझे ही प्राप्त होते हैं।

।।12.3।। परन्तु जो भक्त अक्षर ,अनिर्देश्य, अव्यक्त, सर्वगत, अचिन्त्य, कूटस्थ, अचल और ध्रुव की उपासना करते हैं।।
 

12.3 Those, however, who meditate in every way on the Immutable, the Indefinable, the Unmanifest, which is all-pervading, incomprehensible, change-less, immovable and constant.-

संनियम्य इन्द्रियग्रामम् सर्वत्र समबुद्धयः ते प्राप्नुवन्ति मामेव सर्वभूतहिते रताः

Hindi Translation By Swami Ramsukhdas

।।12.4।।जो अपनी इन्द्रियोंको वशमें करके अचिन्त्य, सब जगह परिपूर्ण, अनिर्देश्य, कूटस्थ, अचल, ध्रुव, अक्षर और अव्यक्तकी उपासना करते हैं, वे प्राणिमात्रके हितमें रत और सब जगह समबुद्धिवाले मनुष्य मुझे ही प्राप्त होते हैं।

।।12.4।। इन्द्रिय समुदाय को सम्यक् प्रकार से नियमित करके, सर्वत्र समभाव वाले, भूतमात्र के हित में रत वे भक्त मुझे ही प्राप्त होते हैं।।

12.4 By fully controlling all the organs and always being even-minded, they, engaged in the welfare of all beings, attain Me alone.

क्लेशः अधिकतरः अव्यक्तासक्तचेतसाम् तेषाम् अव्यक्ता हि गतिः दुःखं देहवद्भिः अवाप्यते

Hindi Translation By Swami Ramsukhdas

।।12.5।।अव्यक्तमें आसक्त चित्तवाले उन साधकोंको (अपने साधनमें) कष्ट अधिक होता है; क्योंकि देहाभिमानियोंके द्वारा अव्यक्त-विषयक गति कठिनतासे प्राप्त की जाती है।Hindi Translation By Swami Tejomayananda

।।12.5।। परन्तु उन अव्यक्त में आसक्त हुए चित्त वाले पुरुषों को क्लेश अधिक होता है, क्योंकि देहधारियों से अव्यक्त की गति कठिनाईपूर्वक प्राप्त की जाती है।।
 English Translation By Swami Gambirananda

12.5 For them who have their minds attached to the Unmanifested the struggle is greater; for, the Goal which is the Unmanifest is attained with difficulty by the embodied ones.

ये तु सर्वाणि कर्माणि मयि संन्यस्य मत्पराः अनन्येनैव योगेन मां ध्यायन्तः उपासते

Hindi Translation By Swami Ramsukhdas

।।12.6।।परन्तु जो कर्मोंको मेरे अर्पण करके और मेरे परायण होकर अनन्ययोगसे मेरा ही ध्यान करते हुए मेरी उपासना करते हैं।Hindi Translation By Swami Tejomayananda

।।12.6।। परन्तु जो भक्तजन मुझे ही परम लक्ष्य समझते हुए सब कर्मों को मुझे अर्पण करके अनन्ययोग के द्वारा मेरा (सगुण का) ही ध्यान करते हैं।।

English Translation By Swami Gambirananda

12.6 As for those who, having dedicated all actions to Me and accepted Me as the supreme, meditate by thinking of Me with single-minded concentration only-.

श्रीमद् भगवद्गीता _ Gita Supersite

Hindi Translation By Swami Ramsukhdas

।।12.7।।हे पार्थ ! मेरेमें आविष्ट चित्तवाले उन भक्तोंका मैं मृत्युरूप संसार-समुद्रसे शीघ्र ही उद्धार करनेवाला बन जाता हूँ।Hindi Translation By Swami Tejomayananda

।।12.7।। हे पार्थ ! जिनका चित्त मुझमें ही स्थिर हुआ है ऐसे भक्तों का मैं शीघ्र ही मृत्युरूप संसार सागर से उद्धार करने वाला होता हूँ।।
 English Translation By Swami Gambirananda

12.7 O son of Prtha, for them who have their minds absorbed in Me, I become, without delay, the Deliverer from the sea of the world which is fraught with death.

मयि एव मनः आधत्स्व मयि बुद्धिम् निवेशय निवसिष्यसि मयि एव अतः ऊर्ध्वम्। न संशयः

Hindi Translation By Swami Ramsukhdas

तू मेरेमें मनको लगा और मेरेमें ही बुद्धिको लगा; इसके बाद तू मेरेमें ही निवास करेगा — इसमें संशय नहीं है।

Hindi Translation By Swami Tejomayananda

तुम अपने मन और बुद्धि को मुझमें ही स्थिर करो, तदुपरान्त तुम मुझमें ही निवास करोगे, इसमें कोई संशय नहीं है।।

English Translation By Swami Gambirananda

12.8 Fix the mind on Me alone; in Me alone rest the intellect. There is no doubt that hereafter you will dwell in Me alone. [For the sake of metre, eva and atah (in the second line of the verse) are not joined together (to form evatah).]