मनुष्य का चरित्र
आध्यात्मिक – बौद्धिक या ज्ञान-प्रदत्त सहायता – शारीरिक/भौतिक मदद
मनुष्य का स्वभाव
बुराई दुख – अज्ञानता ही उसकी जननी, मनुष्य का चरित्र न बदले,
सभी कर्म स्वभावतः , प्रकृतिक रूप से , अच्छाई और बुराई से बने होते हैं
निरंतर काम करने की आज्ञा
भला और बुरा , दोनों ही आत्मा के लिए बंधन हैं
” अनासक्ति ” / ” ” निःसंगत्व ”
संस्कार को लगभग “अंतर्निहित प्रवृत्ति” “inherent tendency”.
तरंगों के दोबारा उठने की सम्भावना को ही संस्कार कहते हैं।
अगर अच्छे छाप /संस्कार प्रबल हों, तो चरित्र अच्छा बन जाता है ; अगर बुरे , तो बुरा।
प्रवृत्तियाँ , चरित्र की स्थापना
प्रवृत्ति बलवती हो जाती हैं , और परिणाम स्वरूप हम इन्द्रियों (इंद्रिय-अंग, तंत्रिका-केंद्र ) को नियत्रित करने में सक्षम महसूस करते हैं।
हर योग का ध्येय / लक्ष्य आत्मा की मुक्ति है,
बुद्ध एक कर्मठ ज्ञानी थे, ईसा मसीह एक भक्त थे
मुक्ति का अर्थ है संपूर्ण स्वतंत्रता
अंगुली में कांटा
लहरों को आने और जाने दो , मांसपेशियों और मस्तिष्क से प्रचंड कार्यों को अग्रसर होने दो, पर उन्हें आत्मा पर गहरी छाप / संस्कार मत डालने दो।