16th Online Vivekananda Forum Meet

Date : Oct 15 , 2020 Thursday Time : 07:15 pm to 8:30 pm

Video Meet Link – https://meet.google.com/ozz-kerh-skj

Harmony of Four Yogas to reach the Goal

What is The Goal

Each soul is potentially divine. The goal is to manifest this Divinity within by controlling nature, external and internal.

How to Achieve This Goal

Do this either by work, or worship, or psychic control, or philosophy — by one, or more, or all of these — and be free. This is the whole of religion. Doctrines, or dogmas, or rituals, or books, or temples, or forms, are but secondary details.

Source : Complete Works — Volume I – Raja Yoga -Preface

लक्ष्य तक पहुँचने के लिए चार योगों का सामंजस्य


लक्ष्य क्या है ?

प्रत्येक आत्मा में दिव्यता की शक्यता है। लक्ष्य है , प्रकृति – बाह्य और आंतरिक – को नियंत्रित करके इस दिव्यता को प्रकट करना ।

इस लक्ष्य को कैसे प्राप्त करें ?

या तो कर्म या पूजा, या मानसिक नियंत्रण, या दर्शन ( तत्त्वविज्ञान) – किसी एक, या अधिक, या इन सभी द्वारा या यह ( इस लक्ष्य को हासिल ) करो – और मुक्त हो जाओ। संपूर्ण रूप से धर्म यही है। सिद्धांत, या रूढ़ियाँ , या रस्मों- रिवाज, या ग्रन्थ, या मंदिर, या रूप अतिरिक्त ( सहायक , अप्रधान ) विस्तार या विवरण मात्र हैं।

What is the Science of Four Yogas


चार योगों का विज्ञान क्या है

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VM

Source : Complete Works – Volume 8 – Writings – Prose – London 1896 – Four Paths of Yoga

FOUR PATHS OF YOGA

योग के चार पथ

(स्वामीजी के प्रथम अमरीका प्रवास/ यात्रा के दौरान एक पश्चिमी शिष्य द्वारा पूछे गए सवाल के जवाब में उन्होंने यह लिखा था )

हमारी मुख्य समस्या है मुक्त होना ( आज़ाद होना , स्वतन्त्र होना) । सो यह स्पष्ट है कि जब तक हम परम ( पूर्ण , असीम ) को न प्राप्त कर लें ( अनुभव न कर लें , या न साध लें ), हम मुक्ति ( मोक्ष) नहीं प्राप्त कर सकते हैं। तो भी इस अनुभूति को प्राप्त करने के अनेक रास्ते हैं। इन विधियों के सामान्य या व्यापक नाम है योग ( जोड़ना , अपने आप को वास्तविकता / यथार्थ या सत्य से जोड़ना ) । यद्यपि ये योग विभिन्न वर्गों में बाँटे गए हैं , तथापि उनको चार भागों में वर्गीकृत किया जा सकता है ; और क्योंकि प्रत्येक वर्ग, पूर्णता को प्राप्त करने का एक तरीका भर है, वो विभिन्न स्वभावों (मिजाजों , प्रकृति) के अनुकूल हैं।अब यह स्मरण रखना ज़रूरी है कि ऐसा नहीं कि कल्पित व्यक्ति वास्तविक व्यक्ति या पूर्ण (परम ) बन जाता है। यहाँ पूर्ण बन जाने जैसी कोई बात नहीं है। वह सदा ही मुक्त है , हमेशा सिद्ध ( पूर्ण ) है ; किन्तु वह अज्ञानता जिसने कुछ समय के लिए उसके स्वरूप को ढँका हुआ है वह हटाया जाना होता है। इसलिए योग की सभी पद्धतियों का पूरा विषय-क्षेत्र ( और हर धर्म एक का प्रतिनिधित्व करता है ) इस अज्ञानता का सफाया करना है एवं आत्मा को उसके अपने स्वरूप में पुन: स्थापित करना होता है ( लौटाना होता है ) । इस मुक्ति में मुख्य सहायककर्त्ता हैं अभ्यास एवं वैराग्य। वैराग्य है जीवन के प्रति अनासक्त होना ( आसक्ति नहीं होना / बन्धन नहीं रखना ), क्योंकि यह उपभोग करने की चाहत ही अपने कारवाँ के सङ्ग सारे बन्धनों को लाती है ; और अभ्यास है इन योगों में किसी भी एक का सतत साधन करना ( अभ्यास करना )।

कर्म-योग : कर्म-योग है कार्य या कर्म के द्वारा मन को शुद्ध करना ( पवित्र करना, निर्मल करना ) । अब अगर कोई कर्म किया जाता है , अच्छा या बुरा , तो वह प्रतिफल में अच्छे या बुरे नतीज़े ( प्रभाव /परिणाम ) अवश्य उत्पन्न करेगा ; जहाँ कार्य या कारण मौजूद हुआ , तहाँ कोई भी शक्ति उसको रोक नहीं सकती, ठहरा नहीं सकती। अतः अच्छे कार्य अच्छे कर्म और बुरे कार्य बुरे कर्म पैदा करते रहेंगे और आत्मा कभी भी उद्धार / मुक्ति की आशा किए बिना शाश्वत ( अनन्त) बन्धन में पड़ी रहेगी । अब कर्म केवल शरीर या मन से ही सम्बद्ध होता है, आत्मा से कभी भी नहीं ; वह आत्मा के सम्मुख मात्र एक पर्दा ( आवरण) डाल सकता है। बुरे कर्म द्वारा डाला गया पर्दा ( आवरण) अज्ञानता है । अच्छे कर्म के पास नैतिक शक्ति को बल प्रदान करने, उसे सुदृढ़ करने की ताकत है। और इसलिए वह अनासक्ति उत्पन्न करता है, बन्धन मुक्त करता है ; वह बुरे कर्म के प्रति झुकाव या प्रवृति को नष्ट कर देता है और जिसके चलते वह मन को पवित्र ( शुद्ध , निर्मल ) कर देता है। किन्तु अगर कार्य को उपभोग के इरादे से ( नीयत से) किया जाता है तब वह केवल उसी भोग को ही उत्पन्न करता है और मन या चित्त को शुद्ध (निर्मल , पवित्र ) नहीं करता। इसलिए भोग करने की या फल पाने की अभिलाषा (इच्छा ) के बिना ही सारे कार्य को की जानी चाहिए। कर्म योगिंयों द्वारा , यहाँ अभी या बाद में भी कभी भी होने वाले सभी भय और भोग करने की समस्त इच्छाओं को हमेशा के लिए मिटा दिया जाना चाहिए , निर्वासित कर देना चाहिए । इसके आलावा ,यह कर्म जो बदले में कुछ भी न चाहने वाला कर्म होता है , वह स्वार्थपरता को नष्ट कर देगा, उस ख़ुदग़रज़ी को ख़त्म कर देगा जो कि सभी बन्धनों का जड़ है , मूल है । कर्म-योगी के सचेतक शब्द हैं ” मैं नहीं , अपितु आप ” , और कितना भी आत्म-बलिदान ( आत्म-क़ुर्बानि , आत्म-त्याग ) करना पड़े , वह उसके लिए बहुत अधिक नहीं है। पर वह स्वर्ग या नाम या ख्याति या दुनिया में होने वाले किसी फायदे की कोई भी चाहत के बावजूद ऐसा करता है।

यद्यपि इस निःस्वार्थ कार्य की व्याख्या ( स्पष्टीकरण ) और औचित्य ( तर्काधार) केवल ज्ञान-योग में है, तथापि मनुष्य की स्वाभाविक दिव्यता, बिना कसी गुप्त ( परोक्ष , दूरस्थ ) इरादे के , उसको सभी से प्रेम करवा देती है , दूसरों की भलाई के लिए बलिदान , त्याग करवा देती है , उसका चाहे जो कुछ भी पन्थ ( सम्प्रदाय , मज़हब ) या मत हो । इस के अतिरिक्त , अनेकों के साथ धन-दौलत का बन्धन बहुत बृहत है ( अत्यधिक है ) ; और उनके रुपए- पैसे , सम्पत्ति के प्रति प्यार के ईर्द-गिर्द जमे बिल्लौर ( क्रिस्टल – सघन घनीभूत पदार्थ का जमाव ) को तोड़ा जा सकने के लिए कर्म-योग परम आवश्यक है।

अगला है भक्ति-योग। किसी भी रूप में या अन्य रूप में , भक्ति या पूजा , आराधना, इबादत मनुष्य का सबसे आसान ( सरल ) , सबसे सुहावना ( रुचिकर) और सबसे स्वाभाविक मार्ग है।इस ब्रह्माण्ड की प्राकृतिक अवस्था आकर्षण है ; और उसके बाद निश्चित रूप से हद दर्ज़े का एक परम विघटन होता है। पर फिर भी , मानव हृदय में प्रेम, मिलन का एक स्वाभाविक आवेग है; और जबकि वो अपने आपमें दुर्गति का एक महान कारण है, तथापि अगर इसको उचित वस्तु की ओर ढँग से निर्देशित किया जाए , तो वह यह उद्धार लाता है ( मुक्ति देता है )। भक्ति के विषय-वस्तु भगवान हैं। प्रेम विषय और वस्तु के बिना नहीं हो सकता। प्रेम की वस्तु लिए वह एक अस्तित्व होनी चाहिए जो हमारे प्रेम का प्रतिदान कर सके। अतः प्रेम के देवता निश्चित रूप से कुछ अर्थ में एक मानव भगवान होने चाहिए। वह निश्चित रूप से प्रेम के भगवान होने चाहिएँ। इस बात से अलग कि भगवान होते हैं या नहीं, यह एक तथ्य है ( हकीकत ) है कि जिनके हृदय में प्रेम है , उनके लिए वह परम तत्त्व प्रेम के देवता जैसे ही दीखते हैं ( प्रकट होते हैं ) ,अपनत्व सा आभास देते हैं। ।

निचले रूप वाली पूजा , जो भगवान के न्यायाधीश या दण्डाधिकारी वाले विचार को समाविष्ट करती है या ऐसा कोई जिनकी आज्ञा का पालन भय वश करना होता है ,वो प्रेम कहलाने के काबिल नहीं है , हालाँकि वे धीरे-धीरे उच्च रूपों में विस्तारित होने वाली पूजा के रूप हैं । हम अब प्रेम के ही विचार (विमर्श, मीमांसा ) पर चलते हैं। हम प्रेम को एक त्रिभुज ( त्रिकोण ) के द्वारा दर्शाएंगे, जिसके तले का पहला कोण है निर्भीकता ( निर्भयता) । जब तक डर है ( भय है ) , वह प्रेम नहीं है। प्रेम सारे डर को ख़त्म कर देता है। अपने शिशु के साथ वाली एक माँ , अपने बच्चे को बचाने के लिए बाघ का सामना करेगी। दूसरा कोण यह है कि प्रेम कभी माँगता नहीं , भीख नहीं माँगता ( याचना नहीं करता )। तीसरा कोण या शीर्ष है , प्रेम, स्वयं प्रेम ही के लिए प्रेम करता है ( खुद प्यार की ही खातिर प्यार करता है ) । यहाँ तक कि वस्तु का विचार तक गायब हो जाता है। प्रेम ही एकमात्र रूप है जिसमें प्रेम को प्रेम किया जाता है। यही सर्वोच्च निराकारिता ( अमूर्त्तता ) है और वह परम-तत्त्व ( पूर्ण तत्त्व ) के समान है( बराबर है) ।

उसके बाद है राज-योग। यह योग इन योगों में प्रत्येक में ठीक-ठीक बैठता है। यह सभी वर्गों के जिज्ञासुओं पर फिट बैठता है, चाहे आस्थावान हों या अन्यथा , और यह धार्मिक जाँच का ( अनुसंधान का ) वास्तविक साधन है। जिस तरह से हर विज्ञानं के अनुसंधान की अपनी एक विशेष विधि होती है , उसी तरह राज-योग धर्म की अपनी पद्धति है। विभिन्न संरचनाओं के अनुसार ही यह यह विज्ञान भी विभिन्न रूपों में लागू किया जाता है। इसके मुख्य भाग हैं , प्राणायाम, ध्यान ( एकाग्रता) और धारणा ( देर तक ध्यान ) । जो लोग भगवान में विश्वास करते हैं , उनके लिए एक प्रतीक चिन्ह , जैसे कि ॐ या गुरु से मिले अन्य कोई पवित्र शब्द ( मंत्र ) बहुत ही लाभदायक होंगे। ॐ सबसे महानतम है , जिसका कि अर्थ है परम-तत्त्व ( पूर्ण-तत्त्व) । इन पवित्र ( पावन ) नामों की पुनरावृत्ति करते हुए उनके अर्थ पर ध्यान लगाना (धारणा करना ) ही मुख्य अभ्यास है।

उसके बाद है , ज्ञान-योग। यह तीन भागों में विभक्त है , बाँटा गया है। प्रथमसत्य का श्रवण – वह यह कि आत्मा ही एकमात्र सत्य है और अन्य सब कुछ माया ( सापेक्षता,रिलेटिविटी ) है। द्वितीय मनन करना , सभी दृष्टिकोणों से इस दर्शन पर तर्क/ विचार करना। तृतीय – सभी तर्क-वितर्क , वाद-विवाद को त्याग देना और सत्य को महसूस कर लेना , सच का एहसास होना, सत्य की अनुभूति होना । यह अनुभूति इन सबसे आती है (1) यह स्पष्ट हो जाना कि ब्रह्मन् वास्तविक हैं और बाकी सब अवास्तविक ( ग़ैरहक़ीकी) ; (2) भोग की सारी इच्छा छोड़ देना , त्याग देना ; (3) इंद्रियों और मन को नियंत्रित करना ; (4) मुक्त होने की तीव्र इच्छा ( उत्कट आकाँक्षा ) । इस योग में जो केवल मात्र रास्ते हैं वह हैं इस हक़ीक़त ( वास्तविकता) पर सर्वदा ध्यान लगाना ( इसकी धारणा करना ) और आत्मा को उसके वास्तविक स्वरूप की याद दिलाते रहना। यह सर्वोच्च , किन्तु सबसे कठिन ( दुष्कर ) है । बहुत से लोगों को इसकी बौद्धिक पकड़ आ जाती है , पर बहुत कम ही ऐसे हैं जो गहन अनुभूति , पूर्ण अहसास प्राप्त करते हैं , स्पष्ट रूप से जान पाते हैं ।

The Four Yogas and Emblem of RK Math and Mission

Emblem

The emblem of the Ramakrishna Order designed by Swami Vivekananda is a unique and unparalleled work of art created by one of the richest minds in contemporary history in an exalted mood of spiritual inspiration. It is a profound symbol of harmony and synthesis for reverential meditation in this present age of conflict and disharmony. This symbol is the epitome of Swamiji’s message of harmony and synthesis, leading to life’s fulfilment. This is indeed the most eloquent expression of what he really preached, what he wanted every man and woman to be, to realize, either in the East or in the West. The goal is to realize, even in this very life, one’s real Self, the self-effulgent Atman, the Swan in the emblem and through this realization to be free of all limitations, all bondages and all littleness. This spiritual freedom is one thing to be aspired for and achieved in this very life. It releases one from one’s prison-house of limited individuality and confers upon him or her, the blessing of universal existence. He then becomes one with Existence-Knowledge-Bliss Absolute. ‘Be free. This is the whole of religion’ said Swamiji. The meaning behind this emblem, in the language of Vivekananda himself:

“The wavy waters in the picture are symbolic of Karma, the lotus of Bhakti, and the rising-sun of Jnana. The encircling serpent is indicative of Yoga and awakened Kundalini Shakti, while the swan in the picture stands for Paramatman. Therefore, the ideal of the picture is that by the union of Karma, Jnana, Bhakti and Yoga, the vision of the Paramatman is obtained.” Emblem of the Ramakrishna Order


Source Belur Math Website

English With Hindi Translation


16th Online Vivekananda Forum Meet

Date : Oct 15 , 2020 Thursday Time : 07:15 pm to 8:30 pm

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Source : Complete Works – Volume 8 – Writings – Prose – London 1896 – Four Paths of Yoga

FOUR PATHS OF YOGA

(Written by the Swami during his first visit to America in answer to questions put by a Western disciple.)

योग के चार पथ

(स्वामीजी के प्रथम अमरीका प्रवास/ यात्रा के दौरान एक पश्चिमी शिष्य द्वारा पूछे गए सवाल के जवाब में उन्होंने यह लिखा था )

Our main problem is to be free. It is evident then that until we realise ourselves as the Absolute, we cannot attain to deliverance. Yet there are various ways of attaining to this realisation. These methods have the generic name of Yoga (to join, to join ourselves to our reality). These Yogas, though divided into various groups, can principally be classed into four; and as each is only a method leading indirectly to the realisation of the Absolute, they are suited to different temperaments. Now it must be remembered that it is not that the assumed man becomes the real man or Absolute. There is no becoming with the Absolute. It is ever free, ever perfect; but the ignorance that has covered Its nature for a time is to be removed. Therefore the whole scope of all systems of Yoga (and each religion represents one) is to clear up this ignorance and allow the Âtman to restore its own nature. The chief helps in this liberation are Abhyâsa and Vairâgya. Vairagya is non-attachment to life, because it is the will to enjoy that brings all this bondage in its train; and Abhyasa is constant practice of any one of the Yogas.

हमारी मुख्य समस्या है मुक्त होना ( आज़ाद होना , स्वतन्त्र होना) । सो यह स्पष्ट है कि जब तक हम परम ( पूर्ण , असीम ) को न प्राप्त कर लें ( अनुभव न कर लें , या न साध लें ), हम मुक्ति ( मोक्ष) नहीं प्राप्त कर सकते हैं। तो भी इस अनुभूति को प्राप्त करने के अनेक रास्ते हैं। इन विधियों के सामान्य या व्यापक नाम है योग ( जोड़ना , अपने आप को वास्तविकता / यथार्थ या सत्य से जोड़ना ) । यद्यपि ये योग विभिन्न वर्गों में बाँटे गए हैं , तथापि उनको चार भागों में वर्गीकृत किया जा सकता है ; और क्योंकि प्रत्येक वर्ग, पूर्णता को प्राप्त करने का एक तरीका भर है, वो विभिन्न स्वभावों (मिजाजों , प्रकृति) के अनुकूल हैं।अब यह स्मरण रखना ज़रूरी है कि ऐसा नहीं कि कल्पित व्यक्ति वास्तविक व्यक्ति या पूर्ण (परम ) बन जाता है। यहाँ पूर्ण बन जाने जैसी कोई बात नहीं है। वह सदा ही मुक्त है , हमेशा सिद्ध ( पूर्ण ) है ; किन्तु वह अज्ञानता जिसने कुछ समय के लिए उसके स्वरूप को ढँका हुआ है वह हटाया जाना होता है। इसलिए योग की सभी पद्धतियों का पूरा विषय-क्षेत्र ( और हर धर्म एक का प्रतिनिधित्व करता है ) इस अज्ञानता का सफाया करना है एवं आत्मा को उसके अपने स्वरूप में पुन: स्थापित करना होता है ( लौटाना होता है ) । इस मुक्ति में मुख्य सहायककर्त्ता हैं अभ्यास एवं वैराग्य। वैराग्य है जीवन के प्रति अनासक्त होना ( आसक्ति नहीं होना / बन्धन नहीं रखना ), क्योंकि यह उपभोग करने की चाहत ही अपने कारवाँ के सङ्ग सारे बन्धनों को लाती है ; और अभ्यास है इन योगों में किसी भी एक का सतत साधन करना ( अभ्यास करना )।

Karma-Yoga. Karma-Yoga is purifying the mind by means of work. Now if any work is done, good or bad, it must produce as a result a good or bad effect; no power can stay it, once the cause is present. Therefore good action producing good Karma, and bad action, bad Karma, the soul will go on in eternal bondage without ever hoping for deliverance. Now Karma belongs only to the body or the mind, never to the Atman (Self); only it can cast a veil before the Atman. The veil cast by bad Karma is ignorance. Good Karma has the power to strengthen the moral powers. And thus it creates non-attachment; it destroys the tendency towards bad Karma and thereby purifies the mind. But if the work is done with the intention of enjoyment, it then produces only that very enjoyment and does not purify the mind or Chitta. Therefore all work should be done without any desire to enjoy the fruits thereof. All fear and all desire to enjoy here or hereafter must be banished for ever by the Karma-Yogi. Moreover, this Karma without desire of return will destroy the selfishness, which is the root of all bondage. The watchword of the Karma-Yogi is “not I, but Thou”, and no amount of self-sacrifice is too much for him. But he does this without any desire to go to heaven, or gain name or fame or any other benefit in this world. Although the explanation and rationale of this unselfish work is only in Jnâna-Yoga, yet the natural divinity of man makes him love all sacrifice simply for the good of others, without any ulterior motive, whatever his creed or opinion. Again, with many the bondage of wealth is very great; and Karma-Yoga is absolutely necessary for them as breaking the crystallisation that has gathered round their love of money.

कर्म-योग : कर्म-योग है कार्य या कर्म के द्वारा मन को शुद्ध करना ( पवित्र करना, निर्मल करना ) । अब अगर कोई कर्म किया जाता है , अच्छा या बुरा , तो वह प्रतिफल में अच्छे या बुरे नतीज़े ( प्रभाव /परिणाम ) अवश्य उत्पन्न करेगा ; जहाँ कार्य या कारण मौजूद हुआ , तहाँ कोई भी शक्ति उसको रोक नहीं सकती, ठहरा नहीं सकती। अतः अच्छे कार्य अच्छे कर्म और बुरे कार्य बुरे कर्म पैदा करते रहेंगे और आत्मा कभी भी उद्धार / मुक्ति की आशा किए बिना शाश्वत ( अनन्त) बन्धन में पड़ी रहेगी । अब कर्म केवल शरीर या मन से ही सम्बद्ध होता है, आत्मा से कभी भी नहीं ; वह आत्मा के सम्मुख मात्र एक पर्दा ( आवरण) डाल सकता है। बुरे कर्म द्वारा डाला गया पर्दा ( आवरण) अज्ञानता है । अच्छे कर्म के पास नैतिक शक्ति को बल प्रदान करने, उसे सुदृढ़ करने की ताकत है। और इसलिए वह अनासक्ति उत्पन्न करता है, बन्धन मुक्त करता है ; वह बुरे कर्म के प्रति झुकाव या प्रवृति को नष्ट कर देता है और जिसके चलते वह मन को पवित्र ( शुद्ध , निर्मल ) कर देता है। किन्तु अगर कार्य को उपभोग के इरादे से ( नीयत से) किया जाता है तब वह केवल उसी भोग को ही उत्पन्न करता है और मन या चित्त को शुद्ध (निर्मल , पवित्र ) नहीं करता। इसलिए भोग करने की या फल पाने की अभिलाषा (इच्छा ) के बिना ही सारे कार्य को की जानी चाहिए। कर्म योगिंयों द्वारा , यहाँ अभी या बाद में भी कभी भी होने वाले सभी भय और भोग करने की समस्त इच्छाओं को हमेशा के लिए मिटा दिया जाना चाहिए , निर्वासित कर देना चाहिए । इसके आलावा ,यह कर्म जो बदले में कुछ भी न चाहने वाला कर्म होता है , वह स्वार्थपरता को नष्ट कर देगा, उस ख़ुदग़रज़ी को ख़त्म कर देगा जो कि सभी बन्धनों का जड़ है , मूल है । कर्म-योगी के सचेतक शब्द हैं ” मैं नहीं , अपितु आप ” , और कितना भी आत्म-बलिदान ( आत्म-क़ुर्बानि , आत्म-त्याग ) करना पड़े , वह उसके लिए बहुत अधिक नहीं है। पर वह स्वर्ग या नाम या ख्याति या दुनिया में होने वाले किसी फायदे की कोई भी चाहत के बावजूद ऐसा करता है।

यद्यपि इस निःस्वार्थ कार्य की व्याख्या ( स्पष्टीकरण ) और औचित्य ( तर्काधार) केवल ज्ञान-योग में है, तथापि मनुष्य की स्वाभाविक दिव्यता, बिना कसी गुप्त ( परोक्ष , दूरस्थ ) इरादे के , उसको सभी से प्रेम करवा देती है , दूसरों की भलाई के लिए बलिदान , त्याग करवा देती है , उसका चाहे जो कुछ भी पन्थ ( सम्प्रदाय , मज़हब ) या मत हो । इस के अतिरिक्त , अनेकों के साथ धन-दौलत का बन्धन बहुत बृहत है ( अत्यधिक है ) ; और उनके रुपए- पैसे , सम्पत्ति के प्रति प्यार के ईर्द-गिर्द जमे बिल्लौर ( क्रिस्टल – सघन घनीभूत पदार्थ का जमाव ) को तोड़ा जा सकने के लिए कर्म-योग परम आवश्यक है।

Next is Bhakti-Yoga. Bhakti or worship or love in some form or other is the easiest, pleasantest, and most natural way of man. The natural state of this universe is attraction; and that is surely followed by an ultimate disunion. Even so, love is the natural impetus of union in the human heart; and though itself a great cause of misery, properly directed towards the proper object, it brings deliverance. The object of Bhakti is God. Love cannot be without a subject and an object. The object of love again must be at first a being who can reciprocate our love. Therefore the God of love must be in some sense a human God. He must be a God of love. Aside from the question whether such a God exists or not, it is a fact that to those who have love in their heart this Absolute appears as a God of love, as personal.

अगला है भक्ति-योग। किसी भी रूप में या अन्य रूप में , भक्ति या पूजा , आराधना, इबादत मनुष्य का सबसे आसान ( सरल ) , सबसे सुहावना ( रुचिकर) और सबसे स्वाभाविक मार्ग है।इस ब्रह्माण्ड की प्राकृतिक अवस्था आकर्षण है ; और उसके बाद निश्चित रूप से हद दर्ज़े का एक परम विघटन होता है। पर फिर भी , मानव हृदय में प्रेम, मिलन का एक स्वाभाविक आवेग है; और जबकि वो अपने आपमें दुर्गति का एक महान कारण है, तथापि अगर इसको उचित वस्तु की ओर ढँग से निर्देशित किया जाए , तो वह यह उद्धार लाता है ( मुक्ति देता है )। भक्ति के विषय-वस्तु भगवान हैं। प्रेम विषय और वस्तु के बिना नहीं हो सकता। प्रेम की वस्तु लिए वह एक अस्तित्व होनी चाहिए जो हमारे प्रेम का प्रतिदान कर सके। अतः प्रेम के देवता निश्चित रूप से कुछ अर्थ में एक मानव भगवान होने चाहिए। वह निश्चित रूप से प्रेम के भगवान होने चाहिएँ। इस बात से अलग कि भगवान होते हैं या नहीं, यह एक तथ्य है ( हकीकत ) है कि जिनके हृदय में प्रेम है , उनके लिए वह परम तत्त्व प्रेम के देवता जैसे ही दीखते हैं ( प्रकट होते हैं ) ,अपनत्व सा आभास देते हैं। ।

The lower forms of worship, which embody the idea of God as a judge or punisher or someone to be obeyed through fear, do not deserve to be called love, although they are forms of worship gradually expanding into higher forms. We pass on to the consideration of love itself. We will illustrate love by a triangle, of which the first angle at the base is fearlessness. So long as there is fear, it is not love. Love banishes all fear. A mother with her baby will face a tiger to save her child. The second angle is that love never asks, never begs. The third or the apex is that love loves for the sake of love itself. Even the idea of object vanishes. Love is the only form in which love is loved. This is the highest abstraction and the same as the Absolute.

निचले रूप वाली पूजा , जो भगवान के न्यायाधीश या दण्डाधिकारी वाले विचार को समाविष्ट करती है या ऐसा कोई जिनकी आज्ञा का पालन भय वश करना होता है ,वो प्रेम कहलाने के काबिल नहीं है , हालाँकि वे धीरे-धीरे उच्च रूपों में विस्तारित होने वाली पूजा के रूप हैं । हम अब प्रेम के ही विचार (विमर्श, मीमांसा ) पर चलते हैं। हम प्रेम को एक त्रिभुज ( त्रिकोण ) के द्वारा दर्शाएंगे, जिसके तले का पहला कोण है निर्भीकता ( निर्भयता) । जब तक डर है ( भय है ) , वह प्रेम नहीं है। प्रेम सारे डर को ख़त्म कर देता है। अपने शिशु के साथ वाली एक माँ , अपने बच्चे को बचाने के लिए बाघ का सामना करेगी। दूसरा कोण यह है कि प्रेम कभी माँगता नहीं , भीख नहीं माँगता ( याचना नहीं करता )। तीसरा कोण या शीर्ष है , प्रेम, स्वयं प्रेम ही के लिए प्रेम करता है ( खुद प्यार की ही खातिर प्यार करता है ) । यहाँ तक कि वस्तु का विचार तक गायब हो जाता है। प्रेम ही एकमात्र रूप है जिसमें प्रेम को प्रेम किया जाता है। यही सर्वोच्च निराकारिता ( अमूर्त्तता ) है और वह परम-तत्त्व ( पूर्ण तत्त्व ) के समान है( बराबर है) ।

Next is Râja-Yoga. This Yoga fits in with every one of these Yogas. It fits inquirers of all classes with or without any belief, and it is the real instrument of religious inquiry. As each science has its particular method of investigation, so is this Raja-Yoga the method of religion. This science also is variously applied according to various constitutions. The chief parts are the Prânâyâma, concentration, and meditation. For those who believe in God, a symbolical name, such as Om or other sacred words received from a Guru, will be very helpful. Om is the greatest, meaning the Absolute. Meditating on the meaning of these holy names while repeating them is the chief practice.

उसके बाद है राज-योग। यह योग इन योगों में प्रत्येक में ठीक-ठीक बैठता है। यह सभी वर्गों के जिज्ञासुओं पर फिट बैठता है, चाहे आस्थावान हों या अन्यथा , और यह धार्मिक जाँच का ( अनुसंधान का ) वास्तविक साधन है। जिस तरह से हर विज्ञानं के अनुसंधान की अपनी एक विशेष विधि होती है , उसी तरह राज-योग धर्म की अपनी पद्धति है। विभिन्न संरचनाओं के अनुसार ही यह यह विज्ञान भी विभिन्न रूपों में लागू किया जाता है। इसके मुख्य भाग हैं , प्राणायाम, ध्यान ( एकाग्रता) और धारणा ( देर तक ध्यान ) । जो लोग भगवान में विश्वास करते हैं , उनके लिए एक प्रतीक चिन्ह , जैसे कि ॐ या गुरु से मिले अन्य कोई पवित्र शब्द ( मंत्र ) बहुत ही लाभदायक होंगे। ॐ सबसे महानतम है , जिसका कि अर्थ है परम-तत्त्व ( पूर्ण-तत्त्व) । इन पवित्र ( पावन ) नामों की पुनरावृत्ति करते हुए उनके अर्थ पर ध्यान लगाना (धारणा करना ) ही मुख्य अभ्यास है।

Next is Jnâna-Yoga. This is divided into three parts. First: hearing the truth — that the Atman is the only reality and that everything else is Mâyâ (relativity). Second: reasoning upon this philosophy from all points of view. Third: giving up all further argumentation and realising the truth. This realisation comes from (1) being certain that Brahman is real and everything else is unreal; (2) giving up all desire for enjoyment; (3) controlling the senses and the mind; (4) intense desire to be free. Meditating on this reality always and reminding the soul of its real nature are the only ways in this Yoga. It is the highest, but most difficult. Many persons get an intellectual grasp of it, but very few attain realisation.

उसके बाद है , ज्ञान-योग। यह तीन भागों में विभक्त है , बाँटा गया है। प्रथम – सत्य का श्रवण – वह यह कि आत्मा ही एकमात्र सत्य है और अन्य सब कुछ माया ( सापेक्षता,रिलेटिविटी ) है। द्वितीय – मनन करना , सभी दृष्टिकोणों से इस दर्शन पर तर्क/ विचार करना। तृतीय – सभी तर्क-वितर्क , वाद-विवाद को त्याग देना और सत्य को महसूस कर लेना , सच का एहसास होना, सत्य की अनुभूति होना । यह अनुभूति इन सबसे आती है (1) यह स्पष्ट हो जाना कि ब्रह्मन् वास्तविक हैं और बाकी सब अवास्तविक ( ग़ैरहक़ीकी) ; (2) भोग की सारी इच्छा छोड़ देना , त्याग देना ; (3) इंद्रियों और मन को नियंत्रित करना ; (4) मुक्त होने की तीव्र इच्छा ( उत्कट आकाँक्षा ) । इस योग में जो केवल मात्र रास्ते हैं वह हैं इस हक़ीक़त ( वास्तविकता) पर सर्वदा ध्यान लगाना ( इसकी धारणा करना ) और आत्मा को उसके वास्तविक स्वरूप की याद दिलाते रहना। यह सर्वोच्च , किन्तु सबसे कठिन ( दुष्कर ) है । बहुत से लोगों को इसकी बौद्धिक पकड़ आ जाती है , पर बहुत कम ही ऐसे हैं जो गहन अनुभूति , पूर्ण अहसास प्राप्त करते हैं , स्पष्ट रूप से जान पाते हैं ।

Additional Resources (Videos & Readings )

What are the four yogas? —Swami Mahayogananda ( Vedanta Society of Southern California ) ( 2min :57 Sec )

Audiobook) Yoga – It’s Four Dimensions Demystified – Swami Vivekananda ( 20:41 )

( This excerpt is taken from Swami Vivekananda’s lecture on The Ideal of a Universal Religion – Complete Works Vol.2)

0:00 Intro 0:07 The Perfect Man 0:47 What Yoga means for Worker, Mystic, Lover and Philosopher 1:45 Raja Yoga 2:25 Three instruments of Knowledge 6:23 Only method to acquire Knowledge 9:01 Karma Yoga 11:03 Bhakti Yoga 14:36 Jnana Yoga 16:04 Story of two birds 19:36 Sravana, Manana, Nididhyasana

Yoga samanvaya by swami Atmapriyananda Maharaj ( Time Duration 55:30 )

কিছু বিয়োগে হয় যোগ II স্বামী শাস্ত্রজ্ঞানন্দ II Ramakrishna Math O Mission II Belurmath II ( 33:33)

Harmony of Four Yogas ( Reference : Inspired Talks )


हमारी इच्छाशाक्ति ही वह “धीमी सी, हल्की सी अन्तरात्मा की आवाज ” , यही यथार्थ शासक है – वह सदा हमारे लिए विधि-निषेध बतलाती है – कहती है, अमुक कार्य करो, अमुक कार्य न करो। इसी इच्छाशाक्ति ने वह सब किया है जो हमें बंधनों में डालती है। अज्ञानी इच्छाशाक्ति बन्धन की और ले जाती है , ज्ञानवान ( बोधमय ) इच्छाशाक्ति हमें मुक्त कर सकती है। इच्छाशाक्ति को हज़ारों तरीकों से प्रबल ( दृढ ) बनाया जा सकता है ; हरेक वह तरीका एक प्रकार का योग है , परन्तु व्यस्थित योग इस कार्य का जल्दी पूरा करता है । भक्ति, कर्म, राज और ज्ञान-योग इस क्षेत्र को ज्यादा प्रभावी ढँग से पार करा देते हैं। दर्शन-शास्त्र ,कर्म, प्रार्थना , ध्यान-धारणा की सारी शक्तियों को लगा दो – जहाज के सारे खेवनों को खोल ,पालों की झुण्ड लगा दो , वाष्प-शक्ति के सारे शिखर-श्रोतों को चालू कर जहाज़ को गति देने में नियुक्त कर दो – लक्ष्य तक पहुँच जाओ । जितनी जल्दी हो ,उतना ही अच्छा।

देव वाणी – स्वामी विवेकानन्द

The will is the “still small voice”, the real Ruler who says “do” and “do not”. It has done all that binds us. The ignorant will leads to bondage, the knowing will can free us. The will can be made strong in thousands of ways; every way is a kind of Yoga, but the systematised Yoga accomplishes the work more quickly. Bhakti, Karma, Raja, and Jnana-Yoga get over the ground more effectively. Put on all powers, philosophy, work, prayer, meditation — crowd all sail, put on all head of steam — reach the goal. The sooner, the better. . . .

Source : Inspired Talks ( Complete Works / Volume 7 )

Recorded By Miss S. E. Waldo (A Disciple) Saturday (Kathopanishad), July 27, 1895.

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